घर की तलाश में घर से निकलती हूँ,
हर मोड़ पे एक नई राह में ढलती हूँ।
जहाँ सोचती हूँ कि मंज़िल क़रीब है,
वहीं ख़्वाबों के चाँद पर बादल सा छा जाता है।
किसी गली के कोने में एक सुर सा लगता है,
पर दिल के ज़ख़्मों का शोर भी भटकता है।
जो शहर कभी आशियाँ था मेरे लिए,
वही शहर अजनबी सा लगता है मुझे।
हर दरवाज़ा खटखटाती हूँ, एक सन्नाटा बोलता है,
दिल में चिराग़ जलाती हूँ, अंधेरा फिर दोस्तों सा लगता है।
मैं घर के अरमानों को नए रूप में समझती हूँ,
शायद तलाश एक मकान की नहीं, अपने उजालों की है।
कहीं एक पल के ठहराव में घर मिल जाएगा,
शायद ढूँढते-ढूँढते खुद का पता मिल जाएगा।
तब तक तलाश के रंगों में रंग जाती हूँ,
हर राह पर अपने होने का नया सुर पाती हूँ।
— अहेली